…क्योंकि हम प्रेम करते हैं। अपनी दुनिया से, लोगों से, जीवों से, नदियों, पेड़-पौधों से।
जब एक शानदार कहानी पढ़ते हैं, एक शानदार कविता पढ़ते हैं या कोई लेख पढ़ते हैं या कोई चित्र देखते हैं जो हमें आनंद से भर देता है या जो किसी के दुख में हमें शामिल करता है तो शामिल होने का भी सुख मिलता है।
हमें अकसर लगता है कि क्या हमारे बच्चे…हम सबके बच्चे…भी कला और साहित्य और अपने आसपास की चीज़ों का ऐसे ही आनंद उठा सकते हैं?
हिन्दी में ही देखें तो सामग्री बहुत है। हज़ारों किताबें हैं। पर उनमें बहुत कम ऐसी हैं जिनमें पाठक शामिल हो सकें या आनंद उठा सकें।
ये किताबें पाठकों में अनुभव पैदा करने में भी नाकाम रहती हैं। ज़्यादातर किताबें ऐसी मिलीं कि लगा बच्चे उन्हें न ही पढ़ें तो अच्छा।
एक तरफ ये किताबें हैं जो बहुत सरलीकृत हैं। जिनमें कल्पनाशीलता सिरे से गायब है। जिनमें उपदेश हैं। निष्कर्षात्मक किताबें। रेडीमेड। उनमें कल्पना करने, विचार करने, रचने, सपने देखने, सूझबूझ के मौके न के बराबर हैं।
दूसरी तरफ बच्चे हैं। कल्पना से भरे। जीवन में हर चीज़ में उनकी रुचि है। वे चीज़ों को समझना चाहते हैं। सचमुच दुनिया को बनाने में, दुनिया के कामों में हाथ बँटाना चाहते हैं। घर में झाड़ू लगाना चाहते हैं। अकसर ही माँ के साथ खाना बनाना चाहते हैं। बच्चे जिनमें दो मिनट में बेकार पड़ी चार चीज़ों से दस खेल बनाने और खेलने का हुनर है। जिनके मन सवालों से भरे हैं। और जो हर मिनट मनाहियों और नसीहतों से जूझकर भी हँसते खिलखिलाते हैं। क्या बच्चों की इस तासीर और मिज़ाज़ से मेल खाता साहित्य हम रच सकते हैं? यह असल सवाल है। एक किताब जिसमें बच्चों के सपने और संघर्ष हों। जो उनके मन के बाहर मन का एक और कोना रच सके।
एक तरफ मान्यताएँ हैं – बच्चे अला चीज़ नहीं समझ पाएँगे…बच्चे फलाँ चीज़ नहीं समझ पाएँगे। और इसी क्रम में बाल-साहित्य ऐसी किताबों से भर गया जो नकली दुनिया रचती हैं। जिनके सवाल नकली हैं। संघर्ष नकली हैं। एक कृत्रिम दुनिया।
जबकि बच्चे हमारे साथ हमारी ही दुनिया को साझा करते हैं। वे मृत्यु, दंगे, प्रेम, सुख-दुख, अच्छा-बुरा सब देखते, सुनते और भोगते हैं। और उससे जूझकर आगे भी बढ़ते हैं। यहाँ तक कि हम उनके असली सवालों के भी सरलीकृत, लिज़लिजे़ और नकली जवाब पेश करते हैं। बच्चे हमारी सुझाई एक कहानी पढ़ते हैं और फिर पूरे स्कूली जीवन में हमारे ही सवालों के हमारे ही रचे उत्तर देते रहते हैं। पाठ्यपुस्तक के जो सवाल पूछ रहा है वह कौन है? किसके सवाल हैं वे?
अगर रचना में कुव्वत है तो बच्चे उससे बड़े गहरे सवाल पूछ सकते हैं। हमारे ज़्यादातर साहित्य में यह साफ झलकता है कि हम बच्चों पर भरोसा नहीं करते हैं। लेकिन कुछ रचनाएँ भरोसा करती हैं। मसलन, अनारको के आठ दिन किताब की अनारको – अपनी माँ से पूछती है – माँ दुनिया में सब चीज़ें कौन तय करता है? पिता छह दिन काम करेंगे और इतवार को आराम करेंगे यह कौन तय करता है? तुम सातों दिन काम करोगी ये कौन तय करता है? तोत्तो चान भी एक सपनीली किताब है। इसमें तोत्तो चान की बात धीरज से सुनने वाले और उसे समझने वाले शिक्षक हैं। हमारी आज की दुनिया को ऐसे धीरज वाले शिक्षकों के सपने कौन दिखाएगा?
हमारे बाल-साहित्य में एक बहुत सीमित वर्ग के जीवन की ही झलक मिलती है। शेष ज़्यादातर समूचा जीवन किताबों से गुम है। लड़कियाँ, वंचित तबके, गैरहिन्दू जीवन, हमारे देश के विविध रंग सब गायब हैं। अगर एकाध कहानी में लड़की नायक है तो उसमें ज़रूर किसी पुरुष का हाथ है। महिला किरदार एक अजब किस्म की बेचारगी में फँसे रहते हैं। …सामान्य जीवन तथा उसके संघर्ष, सपने सब गायब हैं।
बाल-साहित्य की भाषा कृत्रिम है। हमारी बोलचाल की भाषा से उसका फ़ासला अपार है। उसमें जान नहीं है। कविताएँ हैं तो वे जिनकी जान तुकबंदी में अटकी है। नकली और आदर्शवादिता से भरीं। कहानियाँ हैं तो वे पंचतंत्र की छाया से मुक्त नहीं हो पाई हैं। सारी कहानियाँ पशुओं, पक्षियों के बहाने कही गई हैं। और पशु-पक्षियों, जीवों, पेड़-पौधों के अपने स्वभाव, आदतों, रहवासों आदि की कहानियाँ नदारद हैं।
कोई एक भारतीय भाषा का समकालीन बाल-साहित्य ऐसा नहीं है कि आप उसकी मिसाल दे सकें। बांगला, मराठी, मलयालम, तमिल आदि भाषाओं में बाल-साहित्य की दुबली ही सही पर एक परम्परा रही है। पर हिन्दी को तो यह भी नसीब नहीं है। गिने-चुने बड़े रचनाकारों ने हिन्दी बाल-साहित्य में कुछ कलम चलाई है। लेकिन बांगला का उदाहरण हमारे सामने है जिसमें एक ज़माने में कई बड़े रचनाकारों ने बच्चों के लिए लिखा था। और उसका प्रभाव पूरे बांगला समाज पर दिखता है।
इन तमाम मुद्दों की पृष्ठभूमि पर इकतारा का विचार जन्मा। एक ऐसा केन्द्र जो इस इलाके में कुछ काम करे। कुछ बुनियादी काम।
मसलन, बड़े लेखकों को बाल-साहित्य से जोड़ने के लिए सृजनपीठ कार्यक्रम शुरू किया गया है। नए-नए विषयों पर लिखने के लिए तथा लगातार विचार-विमर्श के लिए लेखन कार्यशालाएँ आयोजित करना। नई सामग्री को जगह देने के लिए पत्रिकाएँ तथा किताबें प्रकाशित करना। समुचित मानदेय की व्यवस्था करना। ताकि आने वाली पीढ़ी को इस इलाके का काम करके आजीविका चला पाने का एक आश्वासन मिले। युवाओं को इस इलाके में काम करने के लिए आमंत्रित किया जाए। इकतारा युवा लेखकों के साहित्य तथा विशेषकर बाल-साहित्य लेखन के प्रति ओरिएंटेशन के लिए कुछ कार्यशालाओं के एक कोर्स पर भी काम कर रहा है। इस कोर्स के बारे में शीघ्र ही वेबसाइट पर विस्तृत जानकारियाँ मिलेंगी। इकतारा प्रकाशन में पत्रिकाओं तथा किताबों के माध्यम से इन सब मसलों को हम एड्रैस करने की कोशिश करेंगे।
इकतारा, तक्षशिला एजुकेशनल सोसाइटी का बाल-साहित्य एवं कला केन्द्र है।
इस केन्द्र के प्रमुख काम होंगे
बाल-साहित्य के विमर्श के लिए एक साझा मंच बनाना।
बाल-साहित्य सृजन तथा प्रकाशन।
बाल-साहित्य संसाधन केन्द्र बनाना।
युवा रचनाकारों तथा चित्रकारों के साथ प्राथमिकता से काम।
बाल पत्रिकाओं तथा बाल-साहित्य प्रकाशन के तमाम पहलुओं का स्तर उठाने के लिए साझा मंच बनाना।
विभिन्न भाषाओं में बाल-साहित्य के रचनाकारों तथा कृतियों के आपसी लेनदेन का मंच बनाना।
फिलहाल जो काम शुरू किए जा चुके हैं
तक्षशिला बाल-साहित्य सृजनपीठ – हिन्दी में अमूमन बच्चों के लिए बड़े लेखकों द्वारा कम लिखा जाता है। इस खाई को भरने के लिए इकतारा सृजनपीठ के माध्यम से बड़े लेखकों को प्रोत्साहित करता है।
प्लूटो – शुरूआती पाठकों के लिए एक दुमाही पत्रिका है।
संसाधन केन्द्र – बाल-साहित्य और कला पर बच्चों, शोधकों, अध्यापकों, और अन्य पाठकों के लिए सामग्री होगी।
जुगनू प्रकाशन – इकतारा के प्रकाशन केंद्र का नाम जुगनू प्रकाशन है।
साइकिल – 9 से 12 साल के बच्चों के लिए एक दुमाही पत्रिका है।
रियाज़ – शब्द और चित्र का संवाद है, रियाज़।
इकतारा एक साझा केंद्र है और आपकी साझेदारी से ही यह विकसित होगा। इसलिए आप सब से इस केंद्र के भविष्य के लिए सुझाव, मदद, सलाह आमंत्रित हैं।